शापित अनिका: भाग ६

शाम होते होते स्वामी अच्युतानंद भवानीपुर पहुंचे। ठाकुर विशम्भरनाथ की हवेली पर उनका बड़ा भव्य स्वागत हुआ। ठाकुर साहब ने खुद अपनी रीत के अनुसार स्वामी अच्युतानंद के चरण पखारे। अच्युतानंद महाराज ठाकुर साहब के स्वर्गीय कुलगुरू विद्याधर शास्त्री के गुरू होते थे और अपने आखिरी समय में विद्याधर शास्त्री ने ठाकुर विशम्भरनाथ को स्वामी अच्युतानंद से मिलवाकर बताया था कि उस श्राप के अंत हेतु अच्युतानंद महाराज कटिबद्ध हैं इसलिये विशम्भरनाथ के परिवार में स्वामी अच्युतानंद का बहुत सम्मान था। सब प्रकार से आदर कर और जलपान से सत्कार कर ठाकुर साहब अपनी पत्नी अरूणिमा जी के संग स्वामी अच्युतानंद जी से चर्चा करने लगे।


"अहोभाग्य गुरूजी! जो आपके दर्शन हुये।" विशम्भरनाथ ने स्वामी जी के चरणों में सिर नवाया- "लेकिन इस तरह बिना संदेश अचानक आने का कोई विशेष कारण? आप तो पन्द्रह दिन बाद आने वाले थे।"

"समय की गति को कौन जान पाया है विशम्भरनाथ जी!" स्वामी अच्युतानंद ने व्यग्र होकर कहा- "क्या समय मनुष्य की योजनाओं के अनुरूप चलता है? समय आ गया है कि आपकी पुत्री को पिछले हजार वर्षों से आपके परिवार पर छाये उस श्राप से परिचित करवा दिया जाये।"

"लेकिन गुरूजी! मेरी बेटी तो देहरादून के कॉलेज में पढ़ती है। हमने तो उसे दस- बारह दिन बाद आने को कहा है।" अरूणिमा देवी बोलीं।

"आप कल ही उसे बुला भेजिये ठाकुर साहब। शीघ्रता अनिवार्य है अन्यथा हमारे इतने वर्षों का परिश्रम व्यर्थ हो जायेगा।" स्वामी अच्युतानंद का चित्त व्याकुल था- "समय तेजी से बीत रहा है और वो श्राप जागृत हो चुका है। अघोरा भी हमारे अनुमान से अधिक शक्तिशाली हो गया है। आज ही आपकी पुत्री और उस कारक के प्राणों पर संकट आया था। आपकी पुत्री...."

"मेरी बेटी! वो ठीक तो है न गुरूजी।" अरूणिमा देवी अनिका की खबर सुनकर परेशान हो गईं।

"आपकी पुत्री को कोई हानि नहीं पहुंची। एक युवक ने आपकी पुत्री की प्राणरक्षा की परन्तु इस प्रक्रम में वो स्वयं मृत्यु- संकट से जूझ रहा था। वो युवक ही वो कारक है, जो इस श्राप को तोड़ने में आपकी पुत्री की सहायता करेगा। परन्तु अब उन दोनों के प्राणों पर संकट बढ़ चुका है। अत: शीघ्र ही अनिका को इस रहस्य से अवगत कराना ही होगा।" स्वामी जी ने अरूणिमा देवी को अनिका की कुशलता का समाचार दिया।

अनिका की कुशलता की खबर से अरूणिमा देवी की चिंता तो कम हुई लेकिन प्राणों पर संकट की बात सुनकर मन व्याकुल हो उठा। घबराकर ठाकुर साहब से बोली- "आप आज ही जाकर अनिका को क्यों नहीं लिवा लाते? चार- पांच ही घंटे का तो रास्ता है।"

"लेकिन अरूणिमा जी! अभी रात होने को आई है। वहां जाकर लौटने में...." ठाकुर साहब कुछ कहना चाहते थे कि अरूणिमा जी बोल पड़ी- "कुछ देर नहीं होगी। यही न कि पूरी रात जागकर गाड़ी चलानी पड़ेगी! तो क्या अपनी बेटी की जिंदगी की खातिर आप एक रात की नींद नहीं छोड़ सकते? मैंनें भी तो उसके बचपन में कितनी रातें जागकर कांटीं हैं। उसी की नींद सोती थी और उसी की...."

"अरे बस कीजिये अरूणिमा जी! हम आज ही उसे लेकर आ जायेंगें बल्कि अभी निकल जातें है।" ठाकुर साहब के पास यूं तो अनेकों नौकर- चाकर थे लेकिन वो अपनी गाड़ी खुद ही चलाते थे, शायद इसलिये सुबह तक का हील- हवाला कर रहे थे लेकिन आखिरकार अरूणिमा देवी की जिद के आगे नतमस्तक होना ही पड़ा। भला कोई पति आजतक पत्नी की जिद के आगे ठहर पाया है?

"उचित है! आप अपनी पुत्री को लेकर कल सूर्योदय के समय अपनी कुलदेवी के मंदिर में आ जाइयेगा। हम वहीं आपकी प्रतीक्षा करेंगें।" अच्युतानंद जी ने आशीर्वाद दिया।

"ठीक है गुरूजी!" कहकर ठाकुर साहब कमरे से निकले और गाड़ी में बैठने से पहले अनिका को फोन लगा दिया।

* * *


आशुतोष से बात करते- करते सबको करीब आधा घंटा हो गया था तभी एक नर्स ने आकर आशुतोष के आराम का हवाला देकर सबको बाहर किया और आशुतोष को नींद का इंजेक्शन चुभो दिया। वार्ड से निकलते ही मिशा अनिका से टकरा गई।

"ओह.... आई एम सो सॉरी मिस...." मिशा झेंपते हुये बोली।

"नो इट्स ओके मिशा।" अनिका सकुचाते हुये बोली- "वो एक्चुअली मेरे पापा का फोन आया था। वो मुझे लेने आ रहे हैं, तो मुझे जाना होगा। आई एम रियली सॉरी।"

"कोई बात नहीं। यहां मैं और सिड़ है भाई का ख्याल रखने के लिये और अब तो उनकी हालत भी स्टेबल है.... सो डोंट वरी। आप बेफिक्र होकर जाइये।" मिशा ने मुस्कुराकर कहा तो अनिका वहां से चल पड़ी लेकिन उसका दिमाग या यूं कहें दिल यहीं उलझा रह गया।

उधर मि. श्यामसिंह पत्नी विमला देवी के साथ वार्ड के बाहर बेंच पर बैठे थे। उनकी आंखों में आंसू भरे पड़े थे।

"फिक्र मत कीजिये डैड़.... अब तो भाई की डॉक्टरी भी पूरी हो गई है। जल्द ही नौकरी भी लग जायेगी फिर आपका खर्चा भी चुका ही देंगें। रोने की जरूरत नहीं है।" मिशा व्यंग्यपूर्वक बोली।

"जिस बारे में पता न हो, उस बारे में मुंह नहीं खोलना चाहिये मिशा...." विमला देवी ने मिशा को झिड़कते हुये कहा।

"पता नहीं है.... ओह, तो आप भाई के बचने का अफसोस मना रहे हो क्या?" मिशा ने तंज कसा।

"मिशा...." विमला देवी चिल्लाई- "तुम जानती भी हो कि...." विमला देवी की बात पूरी होने से पहले ही मि. श्यामसिंह ने उन्हें हाथ पकड़कर चुप होने का इशारा किया- "अभी सही वक्त नहीं है विमला!"

"मैं सब जानती हूं। बचपन से देखती तो आ रही हूं कि आपलोग भाई के साथ क्या- क्या करते आये हो। प्यार से बात करना तो दूर आपको उनके खाने- पीने का इंतजाम करने में दिक्कत है। क्यूं मम्मा? जब बारह महीने हमारा फ्रिज फ्रूट्स और आइसक्रीम- जूसेज भरा रहता है तो भाई के आते ही फ्रिज खाली क्यूं कर दिया जाता है? पिछले सत्रह साल में कितनी बार आपने उनके लिये कपड़े बनवाये हैं? वो सब छोड़िये क्या आजतक आपने उन्हें कभी बर्थ- ड़े विश भी किया है? जब उनके होने या न होना आपके लिये एक बराबर है तो ये घड़ियाली आंसू बहाने का क्या तुक है?" मिशा ने घृणापूर्वक कहा और आगे बढ़ गई। विमला देवी गुस्से में कांप रही थी और कुछ जवाब देना ही चाहती थी लेकिन मि. श्यामसिंह ने उनसे चुप रहने का आग्रह किया और चौंकते हुये एक तरफ इशारा किया। विमला देवी ने भी आश्चर्य से उधर देखा तो उनकी नजर सामने से आते स्वामी शिवदास और उनके शिष्य शिवानंद पर पड़ी।

* * *


हॉस्पिटल से अनिका सीधे अपने कमरे में गई। उसके कपड़े आशुतोष के खून से सने थे इसलिये रूम पर पहुंचते ही सीधे बाथरूम में घुस गई। शॉवर का पानी बदन पर गिरते ही उसे राहत मिली। उसके दिमाग में बस एक ही ख्याल था कि क्या कोई सचमुच किसी के लिये अपनी जान खतरे में ड़ाल सकता है। उसने आजतक बस फिल्मों में ही ये सब देखा था। उसे अचानक आशुतोष की वो बात याद आ गई जब उसने हिप्पोक्रेटिस को हिप्पोपोटेमस कहा था। वो याद आते ही उसके मुख पर एक मुस्कुराहट तैर गई।

करीब आधा घंटा शॉवर में बिताकर वो बाहर आई और सीधे किचन में जाकर कॉफी बनाने लगी। जैसे ही उसने कॉफी खत्म की उसके मकान के बाहर एक कार आकर रूकी और हॉर्न बजाने लगी। अनिका अपने ख्यालों से बाहर आई और जल्दी से रूम लॉक करके बाहर चली गई। बाहर ठाकुर विशम्भरनाथ कार के पास उसका इंतजार कर रहे थे।

"कैसे हो पापा...." अनिका मुस्कुराते हुये ठाकुर साहब के गले लग गई।

"मैं ठीक हूं गुड़िया.... पर तुम कितनी कमजोर हो गई हो?" ठाकुर साहब ने अनिका को गाड़ी में बैठाकर कहा।

"कहां पापा.... मैं तो एकदम फिट हूं.... न मोटी न पतली। आपका और मम्मा का वश चले तो मुझे ताड़का बनाकर छोड़ो।" अनिका की बात पर विशम्भरनाथ हंस पड़े।

"क्या हुआ पापा? आप अचानक ऐसे.... अगले हफ्ते तो मैं आने ही वाली थी। ऐसा भी क्या जरूरी काम था?" अनिका ने गाड़ी में बैठते हुये पूछा तो ठाकुर विशम्भरनाथ के चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखने लगी।

"चलो रास्ते में बताता हूं।" कहकर ठाकुर साहब ने गाड़ी स्टार्ट की और भवानीपुर की तरफ बढ़ा दी।

"अब तो बता दो पापा। घर में सब- कुछ ठीक तो है न!" आधे घंटे की ड्राइविंग के बाद भी जब ठाकुर साहब ने कुछ नहीं बताया तो अनिका ने परेशान होकर पूछा।

"अरे परेशान मत हो बेटा, घर में सब ठीक है।" ठाकुर साहब असमंजस में बोले।

"तो फिर आप ऐसे अचानक मुझे लेने क्यों चले आये? कोई न कोई बात तो जरूर है। मम्मा तो ठीक है न!" अनिका घबराई सी बोली।

"अरे मैंनें कहा न कि घर पर सब ठीक है। तुम बेकार में परेशान हो रही हो।" ठाकुर साहब हंसकर बोले।

"तो फिर बात क्या है?"

"अं.... देखो बेटा, एक बात है, शायद तुम यकीन न करो लेकिन एक बात है जो हमने अब तक तुमसे छुपाई थी।" ठाकुर साहब अचकचाये से बोले।

"कौन सी बात?" अनिका ने चौंककर जिज्ञाषापूर्वक पूछा।

"हमारे परिवार पर वर्षों से एक श्राप है बेटी!" ठाकुर साहब बमुश्किल बोल पा रहे थे- "जो कई पुश्तों से हमारे खानदान पर ग्रहण सा लगा है।"

"कौन सा श्राप?" अनिका जानने को उत्सुक थी।

"वही बताने के लिये तो तुम्हें गांव ले जा रहा हूं बेटी। तुम्हारे जन्म के साथ ही हमारे कुलगुरू स्वर्गीय विद्याधर शास्त्री ने कहा था कि तुम इस श्राप के टूटने का कारण बनोगी। इसी बारे में बात करने के लिये स्वामी अच्युतानंद ने तुम्हें बुलाया है।"

"और ये स्वामी अच्युतानंद कौन हैं?"

"वो पंडित विद्याधर शास्त्री जी के गुरू हैं। अब बाकी की बातें वहीं तुम्हें बतायेंगें।" कहकर विशम्भरनाथ चुप हो गये और गाड़ी की स्पीड़ बढ़ा दी। अनिका भी खामोशी से शीशे के बाहर अंधेरे को घूरने लगी।

* * *



वो एक बड़ा सा मैदान था, जिसकी भूरी रक्तपिपासु मिट्टी रक्त के आस्वादन से तृप्त हो चुकी थी। पूरे मैदान में अनेकों क्षत- विक्षत शव पड़े, गिद्धों का आहार बन रहे थे। उन्ही क्षत- विक्षत शवों के बीच पीठ पर तुणीर लटकाये, हाथ में रक्त से सनी खड़ग लेकर वो पर्वत समान अड़िग योद्धा खड़ा था। रक्ताम्बर धोती और श्वेत- कवच धारण किये उस योद्धा के मुख से तेज प्रस्फुटित हो रहा था। उसके पास ही लकड़ी, सींग और पंचधातु से निर्मित एक दिव्य- धनुष भूमि पर पड़ा था। उसके शरीर पर लगे अनगिनत घावों से निरंतर रक्त- प्रवाह हो रहा था। उसके सामने श्वेत- वस्त्रधारी एक दिव्यांगना खड़ी मुस्कुरा रही थी। उनका आकार अतिविराट था, जिनके सामने वो नतमस्तक था।

"प्रणाम माते! आज आपके दर्शन कर मैं कृतार्थ हुआ। क्या अब भी मेरे पापों का प्रायश्चित पूर्ण नहीं हुआ?और कितने वर्ष मुझे इस धरा पर भटकना होगा?" उसने हाथ जोड़ विनम्रता से पूछा।

"रूद्र.... आज तुमने परमार्थ हेतु धूम्रपाद से युद्ध कर इस संसार की रक्षा की है। ये संसार ही नहीं अपितु समस्त देवगण भी आज तुम्हारे ऋणी हो गये हैं।" देवी मुस्कुराई- "और पुत्र तुम तो सदा से ही निष्पाप थे।"

"तो फिर मुझे अपने सानिध्य से वंचित करने का आधार क्या था माते!" रूद्र ने अश्रु- पोषित आंखों से पूछा।

"पुत्र उसका कारण था शिव से तुम्हारा विरोध! शिव पर आघात करने पर भला क्या शक्ति का सानिध्य प्राप्त हो सकता है?" माता विंहसते हुये बोली।

"तो क्या उस अपराध का दण्ड़ अब भी शेष है माते?" रूद्र लज्जायुक्त शब्दों में बोला।

"नहीं पुत्र! अपितु तुम्हारे पराक्रम और परोपकार की भावना से मैं अति प्रसन्न हूं। तुमने आज धूम्रपाद का अंत कर सभी मानवों और देवों के संकट का अंत किया है इसलिये मैं तुम्हें वर देने की इच्छा रखती हूं। कहो क्या मांगते हो?" माता ने प्रसन्नतापूर्वक कहा।

"पुत्र के लिये माता के अनंत सानिध्य से बढ़कर भला कौन सी वस्तु है माते!" रूद्र ने पहली बार देवी के तेजोमय मुख की ओर देखकर कहा- "मां! मुझे अपने साथ ले चलो। पिछले सहस्त्र वर्षों से इस धरा पर भटकते- भटकते अब मैं थक चुका हूं। मुझे अपना सानिध्य देकर इस मायालोक से मुक्ति दीजिये माते!"

"हम प्रसन्न हैं कि तुमने देवराज इन्द्र से अपने बैर को भुलाकर मुक्ति की इच्छा प्रकट की। परंतु पुत्र स्वयं महाशिव ने तुम्हें चिरंजीवी होकर इस धरा पर रहने का वर दिया है।" माता चिंता पूर्वक बोलीं- " औरमहाशिव के वर के अनुरूप तुम्हें अनंतकाल तक इसी पृथ्वी पर रहना होगा और महादेव का वरदान कभी मिथ्या नहीं हो सकता।"

माता की बात सुनकर रूद्र के मुख पर दुश्चिंता की लकीरें उभर आई परंतु कुछ क्षण पश्चात् विचार कर मुस्कुराकर बोला- "माता महाशिव ने मुझे अनंतकाल तक पृथ्वीवास का वर तो दिया है परन्तु कैलाश भी तो इसी पृथ्वीपर है।"

"अर्थात्....?" माता मुस्कुराकर बोलीं।

"माता कैलाश भी तो इसी पृथ्वीपर स्थित इस जगत का केंद्र- बिंदु है।" रूद्र मुस्कुराकर बोला- "मैं भी कैलाश पर कैलाशी का अनुचर बनकर रहूंगा, जिससे भगवान शिव से मेरा विरोध भी समाप्त हो जायेगा और आपका तथा प्रभु का सानिध्य भी प्राप्त होगा।"

"तुम्हारी मेधा प्रसंशनीय है पुत्र!" माता ने मीठी हंसी हंसते हुये कहा- "हम तुम्हें कैलाश में स्थान देते हैं परन्तु भविष्य में तुम्हें अनेक महत्वपूर्ण कार्यों हेतु पृथ्वी पर जन्म लेना होगा।"

"मुझे स्वीकार है माते!" रूद्र भी हंसा- "परन्तु आज आपको मुझे अपने हाथों से निर्मित क्षीरपाक का सेवन कराना होगा।"

"अवश्य पुत्र!" माता ने हंसकर कहा और आशीर्वाद की मुद्रा बनाई। माता के हाथ से एक लाल प्रकाश निकला जिसके प्रभाव से एक ही क्षण में रूद्र के सारे घाव भर गये और उसके शरीर से एक अद्भुत तेज प्रस्फुटित होने लगा।

"अब तुम्हें कैलाश के वातावरण से सामंजस्य बैठाने में कोई परेशानी नहीं होगी। आओ पुत्र! अब कैलाश ओर प्रस्थान करें!" माता ने मुस्कुराकर कहा और दोनों अन्तर्ध्यान गये।

अचानक दृश्य बदल गया और हर तरफ अंधकार सा छा गया। वो एक अजीब सी जगह थी, जहां मौत का सन्नाटा पसरा था। आसमान से सूरज, चांद यहां तक कि सितारे भी नदारद थे। आशुतोष एक पुराने से महल के दरवाजे पर खड़ा था, जो इस वक्त खंडहर हो चुका था। अचानक से उसे एक धक्का लगा और वह जमीन पर गिर पड़ा। उसे लगा मानों कोई उसकी छाती पर बैठकर उसका गला दबा रहा है लेकिन तभी कोई अदृश्य ताकत उसे टांगों से खींचने लगी और महल के गलियारों से होते हुये उसे एक कमरे में पटक दिया।

अंदर का माहौल बड़ा भयानक था। कई मानव- कंकाल दीवारों पर लटके थे। कमरे के बीचों- बीच एक बड़ा सा हवन- कुंड था, जिसके इर्द- गिर्द सिंदूर, हल्दी और राख बिखरी थी। कुंड के चारों तरफ इंसानी हंड्डियां और कपाल रखे थे। कई कील चुभे नींबू और अन्य काले- जादू संबंधी सामान वहां पर रखे थे और एक वीभत्स रूप वाला अघोरी हवन- कुंड के सामने बैठा अग्नि में आहुतियां दे रहा था। अघोरी के चारों तरफ काले धुंयें की कई आकृतियां मंडरा रही थी।

"आओ- आओ.... तुम्हारा ही इंतजार था।" अघोरी हंसते हुये बोला।

"भाई तुम हो कौन?" आशुतोष के मन में ऐसे वीभत्स मंजर देख घबराहट हो रही थी।

अघोरी अचानक गायब होकर उसके पीछे आ गया और उसके कान में फुसफुसाया- "हम पहले मिल चुके हैं.... तुम्हारे सपनों में...."

"तुम मुझसे चाहते क्या हो?" अघोरी के ऐसे गायब होकर अपने पीछे आने से आशुतोष की रीढ़ में सिहरन पैदा हो गई। उसने पीछे मुड़कर अघोरी की रक्तवर्ण आंखों में झांका लेकिन उसकी चीख निकलते- निकलते रह गई क्यूंकि अचानक उसकी लाल आंखे पूरी तरह से काली हो गई।

"वो तुम नहीं दे सकते।" अघोरी चहलकदमी करते हुये गुस्से में बोला- " मैंनें तुमसे कहा था कि मेरी अनिका से दूर रहो, लेकिन तुम नहीं माने और देखो तुम मौत के कितने करीब आ गये हो। अफसोस कि जो डेड़- दो साल की जिंदगी बची थी अब वो भी गंवा दोगे।"

"तो तुम मुझे मारना चाहते हो?" आशुतोष व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराया- "तो आओ और मार दो.... देर किस बात की है?"

"हां, मेरा ध्येय पूरा होने हेतु तुम्हारी मृत्यु आवश्यक है।" अघोरी हाथ मलते हुये बोला।

"कमऑन मैन.... जल्दी मुझे मारकर ये सपना खत्म करो।" आशुतोष हंसते हुये बोला- "यहां तो तुम मुझे आसानी से मार सकते हो। आखिर ये बस एक सपना ही तो है।"

"इसे सिर्फ सपना समझने की भूल मत करना।" अघोरी क्रूरता से मुस्कुराया और उसके गले पर शिकंजा कस दिया। 

आशुतोष के कानों में सीटी बजने लगी। उसे सांस लेने में दिक्कत आ रही थी। उसे लगा मानों उसके दिमाग की नसें फूलकर फट रही हैं इसलिये छटपटाते हुये अघोरी के शिकंजे से छूटने की कोशिश करने लगा। उसकी हालत देख अघोरी ने ठहाका लगाया और उसे एक हाथ से हवा में उठा लिया

"भाई जल्दी से मुझे मारकर ये सपना पूरा करो...." आशुतोष बड़ी मुश्किल से मुस्कुराता हुआ बोला।

आशुतोष की मुस्कुराहट देख कर अघोरी का गुस्सा चरमसीमा पर पहुंच गया और उसने आशुतोष को दीवार की तरफ उछाल दिया। आशुतोष जोर से हॉस्पिटल की दीवार पर टकराया और धड़ाम से फर्श पर गिर पड़ा।

* * *


क्रमशः


      ----अव्यक्त



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2 Comments

BhaRti YaDav ✍️

29-Jul-2021 04:38 PM

Nice

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Pihu jaiswal

20-Jul-2021 04:19 PM

Best part 👌👍👍❣️ bahut badhiya h likhe h Ashutosh ko to koi der hi lag raha h 😀अघोरी का गुस्सा चरम पर है 🤣

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